स्थापना दिवस पर विशेष
– आधुनिक संताल को ओल्गुरु ने दिलाई विशिष्ट पहचान
चंदन मिश्र
संताल परगना को चार संताली सपूतों ने संतालपरगना की नाम और पहचान दिलाई है। संताल हुल के मुख्य नेता चार भाई सिदो, कान्हू,चांद और भैरव मुर्मू थे, जिन्हें झारखंड के लोग धरती के देवता या भगवान मानते हैं। इनके अलावा दो जुड़वां बहनों फूलो और झानों ने भी संताल विद्रोह में बड़ा योगदान किया था। संताल विद्रोह संताल के कृषक लोगों के उत्पीड़न के खिलाफ एक विद्रोह था, जिसे संताल हुल के रूप में जाना जाता है। आधुनिक संताल को ओल्गुरु संताली कवि (कवि गुरु) साधु रामचंद्र मुर्मू ने नई पहचान दिलाई है। संताल को सजाने और संवारने का काम अभी बहुत बाकी है। संताल की राजनीति में दिशोम गुरु (शिबू सोरेन) ने भी अलग पहचान दिलाई है। लेकिन संताल का राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक विकास होना अभी बाकी है। 1854- 55 में संताल हुल का प्रत्यक्ष परिणाम स्वरूप भागलपुर और वीरभूम के कुछ हिस्सों को मिलाकर 1855 में संताल परगना अलग जिला बनाया गया था। जनजाति सुरक्षा के सह संयोजक दुमका के डॉ राजकिशोर हांसदा विस्तार से संताल समाज की जानकारी देते हुए बताते हैं। संताल जनजाति जनसंख्या की दृष्टि से जनजातियों में तीसरी सबसे बड़ी है। भारत देश में इनकी आबादी लगभग एक करोड़ से ऊपर है। संताल लोग चाय-चाम्पा देश में निवास करने का काल को स्वर्ग युग मानते हैं।
हाड़ाप्पा-मोहन जोदड़ो की खुदाई में संतालों का अनेक चिह्न मिला है। जब संताल लोग चाय-चाम्पा देश में रहते थे तो उस समय मरे हुए व्यक्ति को जलाते थे, उसको संताली भाषा में राप्पाक् ‘ कहते हैं। होड़- राज्याक् से हाड़प्पा हुआ। एक समय ऐसा आया संतालों के बीच धर्म और संस्कृति में बहुत बड़ा संकट आया. उसके अस्मिता और अस्तित्व पर संकट पैदा हो गया। धर्म और संस्कृति की रक्षा करने के लिए चाय-चाम्पा देश को छोड़कर अन्यत्र चले गये। संतालों का विश्वास है माधो सिंह नाम का एक अनाथ बालक शिशु किस्कू राजा के घर पर बड़ा हुआ। जब वह य
वहां के कोई तुरुक दिसोम, भांड़ दिसोम में आये लगता है. उस समय मुगलों का शासन था। वहां से आतो जोना जोनापुर होते हुए सिर दिसोम, शिखर दिसोम आये। आगे चलकर संताल लोग यहीं से दो भाग में बंट गये एक भाग उत्तर दिशा की ओर दावड़ा बुरु, चातोम बुरु (मुंगेर की पहाड़ी) होते हुए नया चाम्पा देश गंगानदी के किनारे भागलपुर तक आये।
1784 ई में जब तिलका मुर्मू (मांझी) ने अगस्तस क्लिवलैंड को मारा। उसके बाद नया चाम्पा देश यानी भागलपुर से सभी संताल भाग गये। इसलिए चाम्पा देश का नाम भागलपुर पड़ा। तिलका मांझी को जहां से शक्ति मिलती थी, जहां वे पूजा करते थे, उसका नाम आज भी भागलपुर में “बूढ़ानाथ” के नाम प्रसिद्ध है। वर्तमान में संताल समाज अस्मिता और अस्तित्व का संघर्ष कर रहा है।
संताल जनजाति का जितना विकास होना चाहिए उतना आज भी नहीं हुआ है। आज भी समाज में कई प्रकार की कुरीतियां और अंध विश्वास, नशापान, डायन प्रथा आदि हैं। समयानुकूल सुधार करना बहुत आवश्यक है। संताल समाज केवल देना जानता है, लेना नहीं आता है। लेना और देना दोनों होना चाहिए, तभी समाज बचेगा। वास्तव में संताल समाज सनातन धर्म और संस्कृति का रक्षक है। ‘अतिथि देवो भवः’ का व्यवहार के रूप में आज भी संताल समाज में है। जैसे किसी संताल परिवार में कोई अतिथि आते हैं तो सबसे पहले अतिथि को बैठने के लिए आसन देते हैं और एक लोटा जल अतिथि के सामने रखते हैं।
साक्षात् अतिथि देवोभव: का भाव आज भी संताल समाज में दिखता है, लेकिन पढ़ने के लिए ऋग वेद’ में है। संताल समाज में कई प्रकार के चुनौतियां भी हैं। संताल समाज की पहचान वास्तव में इनका धर्म संस्कृति, रीति-रिवाज, परंपराएं, जन्म से लेकर मरण तक के विधि विधान, पर्व-त्योहार, देवी-देवता आदि। आज इनके बीच में अनेक प्रकार विधर्मी लोग घुस आये है और इनको अपना धर्म से विमुख कर रहे है। वास्तव में संताल जनजाति जन्म से सनातनी हैं, लेकिन इनको विधर्मी लोग विदेशी धर्म में बदलते हैं। पहचान के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
इसी प्रकार से कुछ लोग इनको भ्रमित करने का काम करते हैं, इस देश के मुख्य समाज से अलग थलग करने काम कर रहे हैं। इनको अल्पसंख्यक बनाने का काम रहे हैं। वास्तव में समाज को भाषा के नाम पर, लिपि के नाम पर, जल, जमीन और जंगल के नाम पर, अलग धर्म कोड के नाम पर दिग्भ्रमित करना और अपना स्वार्थ सिद्धि का रोटी सेंकना। ऐसे करने वाले सभी के सभी संताल समाज के हितैशी नहीं, बल्कि शत्रु हैं। यही वास्तव में सबसे बड़ी चुनौतियां हैं।