– अशोक सिंह
आदिवासी समाज के मसीहा और झारखण्ड राज्य आंदोलन के अगुवा शिबू सोरेन का जाना एक ऐसे राजनीतिक संत का जाना है जो झारखण्ड के आदिवासियों की आवाज थे। जिसे आदिवासी समाज न सिर्फ अपना मसीहा मानता था बल्कि उन्हें भगवान की तरह पूजता भी था।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि शिबू सोरेन झारखण्ड राज्य आन्दोलन की अगुवाई करने वालों में एक प्रमुख आन्दोलनकारी रहे थे और उन्होंने इसके लिए बड़ा संघर्ष खड़ा किया। उस संघर्ष में आदिवासी मूलवासी सदानों ने भी सामूहिक संघर्ष किया था। उन्हीं संघर्षों ने शिबू सोरेन को लोकप्रिय जननेता बनाया।
शिबू सोरेन की कहानी उस घटना से जुड़ी है, जब 1957 में महाजनों ने सोबरन मांझी की हत्या करवा दी थी। सोबरन मांझी नेमरा गाँव के स्कूल में पढ़ाते थे। पड़ोस के गाँव हेडबरगा के महाजनों से उनका झगड़ा चल रहा था। झगड़ा इसलिए था क्योंकि हेडबरगा के साव परिवार के लोग आदिवासियों को तरह-तरह से ठग कर उनकी जमीन अपने नाम लिखवा रहे थे। ऐसे ही एक मामले में जब गाँव की एक विधवा सूद पर लिया गया पैसा नहीं लौटा पाई तो साव परिवार और उनके गुंडो ने पूरे साल की धान की फसल पर कब्जा करने की कोशिश की। इसे देखकर सोबरन मांझी से रहा नहीं गया और उन्होंने साव की पिटाई कर दी। बाद में एक और महिला को डायन बताकर जब उसकी हत्या करा दी गई और उसकी जमीन पर कब्जे की कोशिश हुई तो भी विरोध के कारण सोबरन मांझी साव लोगों की आँखों में खटकने लगे और एक दिन सुबह जब वे पास के कस्बे में पढ़ रहे अपने बेटों को चावल पहुँचाने जा रहे थे, तो गंुडो ने फरसे से हमला कर उन्हें मार डाला। उनकी लाश दामोदर की सहायक नदी भेड़ा के तट कर मिली थी। सोबरन मांझी अपने जिन दो बेटों के लिए चावल पहुँचाने जा रहे थे, उनमें से एक नाम शिबू था। वही शिबू बाद में शिबू सोरेन बने और आदिवासियों के हक अधिकारों के लिए संघर्ष करते हुए आदिवासियों के मसीहा बन गये।
सोबरन मांझी के हत्या के बाद शिबू सोरेन की पढ़ाई अधूरी रह गयी। गाँव के आस-पास उन्हें आदिवासियों के शोषण का वही तंत्र दिखता था, जिसके खिलाफ उनके पिता ने आवाज उठाने की हिम्मत की थी और जिसकी कीमत जान देकर चुकायी थी। जिस जमीन को सोबरन मांझी साव लोगों के कब्जे से बचाना चाहते थे, उस जमीन पर साव के लठैतों का कब्जा था। शिबू सोरेन ने इस जमीन से वह आंदोलन शुरू किया जिसकी गूंज लगभग दो दशक तक झारखण्ड में सुनाई देती रही। वह था धनकटनी आंदोलन। शिबू सोरेन ने गांव की महिलाओं और पुरूषों को एक जुटकर एक रात में उस जमीन पर खड़ी धान की फसल कटवा दी। जल्द ही ये आंदोलन आसपास के जिलों में फैल गया। निशाने पर वे जमीनें थीं जिन्हंे आदिवासियों से हड़प लिया गया था। इस आंदोलन के शिकार बने झरखण्ड के सदान यानी गैर-आदिवासी मूलवासी। इस आंदोलन की गर्मी में खून-खराबा भी हुआ लेकिन आदिवासियों ने उसे न्याय के लिए हुई लड़ाई का हिस्सा माना। उस समय का शिबू पुलिस की पहुँच से दूर गाँव जंगलों के साथ एकाकार होकर आदिवासियों के अधिकारों के लिए लड़ रहा था। कई जिलों की पुलिस उसे ढूंढती थी लेकिन झारखण्ड के जंगल और वहाँ के लोगों ने शिबू सोरेन को उसी तरह छिपा लिया जैसे माँ अपने बच्चे को आँचल में ढक लेती है।
हजारीबाग जिले के बाद शिबू सोरेन का दूसरा कार्यक्षेत्र धनबाद जिले का टुंडी ब्लॉक बना। यहाँ भी आदिवासियों के शोषण की वही कहानी थी। यहाँ भी शिबू सोरेन जल्द ही जम गये और उनका वह धनकटनी आंदोलन टुंडी में भी चल पड़ा। साथ ही सरकारी जमीन और तालाबों पर गैर आदिवासियों के कब्जे के खिलाफ भी उन्होंने अंादोलन चलाया जिसमें काफी जमीन आदिवासियों के हाथ में वापस आ गई। टुंडी में शिबू सोरेन ने अपने आंदोलन के साथ-साथ कई रचनात्मक कार्यों पर भी काफी जोर दिया। शिबू सोरेन अपने अनुभवों से जानते थे कि आदिवासियों के पिछड़ेपन की मुख्य वजह उनकी अशिक्षा, सुद पर पैसे लेने की मजबूरी और शराब की लत है। टुंडी में शिबु सोरेन ने जंगल के अंदर आदिवासी बच्चों के लिए स्कूल खोले और खुद भी उन स्कूलों में पढ़ाया। यह आंदोलन झारखण्ड में अखिल अखाड़ा के नाम से मशहूर हुआ। उन्होंने आदिवासियों से कहा कि भूख लगे तो पड़ोसियों से मांग लो पर सूद पर महाजनों से कर्ज मत लो। साथ ही उन्होने यह भी कहा था कि अब पुराने कर्ज को लौटाने की जरूरत नहीं है। इसके अलावे नशाखोरी पर भी शिबू ने अपने लोगों को चेताया। उस समय उनके अनुयायी इसका पालन करते थे साथ ही उसपर सख्ती से अमल भी होता था। इसके लिए शिबू सोरेन ने उन दिनांे मटका फोड़ो आंदोलन भी चलाया।
अपने इन्ही सब क्रांतिकारी और जुझारू गतिविधियों के कारण उनदिनों शिबू इतना खतरनाक माने जाते थे कि पुलिस को उन्हें देखते ही गोली मार देने का आदेश दिया गया था। लेकिन उनदिनों शिबू के पक्ष में स्थिति ऐसी थी कि पुलिस की गोली भी शिबू के सीने से टकराकर वापस लौट जाती थी।
जैसे-जैसे उनका आंदोलन बढ़ता चला गया वैसे-वैसे राज्य के एक बड़े हिस्से में उन्हें जनता का सर्मथन और साथ भी हासिल होता गया। उनके जीवन का इतिहास बताता है कि गांव और जंगल में आंदोलन चलाने वाले शिबू सोरेन का समय-समय पर वामपंथी कार्यकर्ताओं से संबंध रहा। सीपीआई और सीपीएम से अलग हुये मार्क्सवादी को-ऑर्डिनेशन कमिटि के साथ वे लगातार उठते बैठते रहे। सीपीआई के मंजूर हुसैन से लेकर एके राय तक से उन्होंने राजनीति सीखी लेकिन शिबू सोरेन कभी वामपंथी नहीं रहे। एके राय की प्रेरणा से जब विनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन को केन्द्र में रखकर झारखण्ड मुक्ति मोर्चा का गठन हुआ। कुर्मी जाति के विनोद बाबू झामुुमो के पहले अध्यक्ष बने और शिबू सोरेन महासचिव। झारखण्ड में आदिवासी-सदान एकता की यह सबसे बड़ी कोशिश थी। लेकिन यह दोस्ती विनोद बाबू की मौत के बाद चल नहीं सकी।
महाजनी प्रथा और आदिवासियों पर जमीदारी जुल्म-शोषण के खिलाफ बागी तेवर में आंदोलन चलाने वाले शिबू सोरेन एक लम्बे जन आंदोलन के गर्भ से निकले देशज आदिवासी नेतृत्व के प्रतीक थे। सन् 1980 में आंदोलन की अपनी ही तैयार जमीन को छोड़कर जब वे दुमका से संसद का चुनाव जीतकर संसदीय राजनीति में आये तो स्थितियाँ परिस्थितियाँ बदलती रही और उनके जीवन में चढ़ाव उतार आता रहा बावजूद झारखण्ड अलग राज्य आंदोलन की माँग को लेकर लगातार संघर्ष करते रहे जिसमें झारखण्डी जनता का बड़ा सहयोग और सर्मथन उन्हें प्राप्त हुआ था। परिणामतः एक लम्बे संघर्ष के बाद झारखण्ड अलग राज्य बना और बीच में वे झारखण्ड के मुख्यमंत्री भी बने। राजनीति उठा पटक और गठबंधन की राजनीति आदि की वजह से उनका कार्यकाल लम्बा नहीं रहा लेकिन झारखण्ड ही नहीं देश की राजनीति में भी एक बड़े निर्णायक की भूमिका में बने रहे। यह भी जानी मानी बात है कि उन्होंने झारखण्ड आंदोलन को मिशन द्वार पर ठिठके आदिवासी आंदोलन के घेरे से बाहर निकालकर क्षेत्रीय आबादी के सभी घटकों के बीच स्वीकार बनाने में 20 सालों तक अनथक परिश्रम किया। इस कारण निःसंदेह उनके राजनीतिक जीवन का इतिहास एक गौरवशाली इतिहास रहा है। ऐसे में उनका जाना एक ऐसे राजनीतिक संत का जाना है, जो न सिर्फ झारखण्ड और देश की राजनीति में निर्णायक भूमिका में थे बल्कि झारखण्ड के आदिवासियों की बुलंद आवाज थे। उनका जाना झारखण्ड की राजनीति के एक युग का अंत हो जाना है।
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