– सक्रिय राजनीति में लौटने का सुख !
– झारखंड भाजपा में कितना कारगर सिद्ध हो पाएंगे
समाचार विश्लेषण
चंदन मिश्र
राजभवन की चहारदीवारी के अंदर सत्ता का आभासी केंद्र बने रहने से कहीं ज्यादा बेहतर चहारदीवारी के बाहर की स्वच्छंद हवा और कार्यकर्ताओं के बीच जय जयकार के नारे सुनने का सुख अद्भुत होता है। ओड़िशा के पूर्व राज्यपाल रघुवर दास शायद यही सुख की अनुभूति कर रहे होंगे, जब वह गुरुवार को बिरसा मुंडा हवाई अड्डे पर उतरकर बाहर आए। कार्यकर्ताओं की भीड़ और जय-जयकार के नारों ने उन्हें विशिष्ट सुख प्रदान किया होगा। याद कीजिए वो दिन जब रघुवर दास बतौर राज्यपाल ओडिशा से रांची लौटते या रांची से ओड़िशा जाने के क्रम में हवाई अड्डा पहुंचते, हवाई अड्डा के बाहर गिनती के दो चार जाने पहचाने चेहरे ही उनके स्वागत या विदाई में दिखाई पड़ते थे। लेकिन आज जब वह राजभवन के बंधन से मुक्त होकर राजभवन की चहारदीवारी और हवाई अड्डे से बाहर आए तो समर्थकों की संख्या सैकड़ों में थी। इसे देख वह गदगद थे।
सक्रिय राजनीति का सुख भोग चुके किसी राजनेता के लिए कार्यकर्ताओं समर्थकों की भीड़ और अपने लिए जय जयकार के नारे बड़े मायने रखते हैं। कोई राजनीतिज्ञ इस सुख से वंचित होना नहीं चाहता है। रघुवर दास आज पूर्व राज्यपाल और पूर्व मुख्यमंत्री हैं। न विधायक हैं, न सांसद और न ही किसी संवैधानिक पद पर आसीन हैं। भाजपा संगठन में भी अभी उन्हें कोई दायित्व नहीं है। सच तो यह है कि उन्हें सक्रिय राजनीति में लौटने के लिए पार्टी की प्राथमिक सदस्यता ग्रहण करनी होगी, जिसे उन्होंने ओड़िशा का राज्यपाल बनने के पहले त्याग दिया था।
भाजपा की दुबारा सदस्यता ग्रहण करने के बाद संगठन में उनकी क्या भूमिका होगी, यह केंद्रीय नेतृत्व तय करेगा। खुद रघुवर दास ने भी यह बात कही है। उन्होंने राज्यपाल पद से स्वयं इस्तीफा दिया है या पार्टी के निर्देश पर दिया है, इसका खुलासा उन्होंने नहीं किया है। शायद वह उसका खुलासा आगे भी नहीं करना चाहेंगे। उन्हें केंद्रीय नेतृत्व ने क्या आश्वासन दिया है, यह जल्द ही स्पष्ट हो जायेगा। संभावना है कि पार्टी उन्हें संगठन में कोई दायित्व सौंप सकती है। यह दायित्व प्रदेश में होगा या केंद्र में, यह भी स्पष्ट नहीं है। यह जानकारी सिर्फ केंद्रीय नेतृत्व को होगी और संभव है, रघुवर दास को भी होगी। रघुवर दास झारखंड में इस बार विधानसभा चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन आलाकमान ने इसकी इजाजत नहीं दी। उनकी जगह उनकी पुत्रवधू को चुनाव मैदान में उतारा गया और पूर्वी जमशेदपुर से वह चुनाव जीत भी गईं।
विधानसभा चुनाव में भाजपा यहां बुरी तरह हारी है। इसकी लगातार मीमांसा हो रही है। क्यों हारी, कैसे हारी, हार के लिए कौन जिम्मेदार हो सकता है, आगे बेहतरी के लिए क्या किया जा सकता है ? भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व लगातार इन विषयों पर चिंता और समीक्षा कर रहा है। 2019 में भी भाजपा की विधानसभा चुनाव में करारी हार हुई थी। उस समय भाजपा सत्ता में थी , फिर भी हार गई थी। मुख्यमंत्री रघुवर दास भी अपना चुनाव हार गए थे। 2019 के चुनाव परिणाम पर भी लंबे समय तक समीक्षा हुई। फिर संगठन में कई फेरबदल हुए। फेरबदल के बाद भी बहुत कुछ सकारात्मक परिणाम नहीं आया। झारखंड में भाजपा को फिर से सक्रिय और ऊर्जावान बनाने की कुछ योजना बन रही होगी। झारखंड में भाजपा को सक्रिय और ऊर्जावान बनाने की दिशा में रघुवर दास को कोई बड़ी जिम्मेवारी देने पर विचार किया गया हो। इसका जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है।
भाजपा क्या पुराने चेहरों के भरोसे ही संगठन को उर्जावान बनाना चाहती है या कोई नया चेहरा लेकर भाजपा को ऊर्जान्वित करना चाहती है ? यह सवाल झारखंड भाजपा कार्यकर्ताओं, नेताओं और आम झारखंडियों के मन उठ रहा है। इसका जवाब अगले कुछ दिनों के अंदर मिल जाएगा, ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए। लेकिन भाजपा जब तक झारखंड के संगठन के अंदर गुटबंदी खत्म नहीं कर पाएगी, किसी को भी नेतृत्व सौंपने से कोई फर्क नहीं पड़नेवाला नहीं है। विधानसभा के चुनाव के दौरान गुटों में बंटे नेता, सांसद और विधायकों ने ही इस विधानसभा चुनाव में भाजपा का बंटाधार किया है, यह बात किसी से छिपी नहीं रही। आज भी झारखंड की भाजपा गुटों में विभाजित है। हर गुट अपनी जाति और नेताओं को लेकर राजनीति करते हैं, जबकि सामने सत्ता में बैठे शख्स हेमंत सोरेन अपनी पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। वह जैसा चाहते हैं, पार्टी में फैसला लेते हैं। उनकी पार्टी में उन्हें चुनौती देनेवाला कोई नहीं है, अगर कोई है तो केवल वह स्वयं हैं। और जब तक झामुमो इस स्थिति में रहेगा और भाजपा थके-मांदे पुराने चेहरों पर दांव खेलती रहेगी, तब तक किसी चमत्कार की उम्मीद करना बेमानी होगी।
रघुवर दास को सक्रिय राजनीति में लौटने के बाद अपने आप को बदलना होगा। उनका एग्रेशन और कार्यकर्ताओं से तीखे बोली व्यवहार से उन्हें मुक्ति पानी होगी। संगठन में काम करने वाले नेता और कार्यकर्ता किसी नेता के गुलाम नहीं हो सकते हैं। हालांकि आजकल भाजपा को पार्टी विथ द डिफरेंस कहना सही नहीं होगा। पार्टी में दलाल किस्म के लोगों का ज्यादा बोलबाला है। इसलिए संगठन को वे अपनी जागीदारी समझते हैं। भाजपा को इनसे मुक्ति पानी होगी। रघुवर दास को यदि झारखंड भाजपा की कमान सौंपी जाती है तो यह उनके लिए एक बड़ा टास्क होगा और संगठन को ट्रैक पर लाना बहुत बड़ी चुनौती होगी। संगठन में मठाधीशों का दबदबा है और वे संगठन में बुरी तरह हावी हैं। उनसे मुक्त हुए बिना झारखंड भाजपा का उद्धार नामुमकिन है।