देवघर। सावन माह में शिवभक्ति अपने चरम पर है। इसी क्रम में भगवान शिव की मूर्ति पूजा के महत्व को लेकर डॉ. परशुराम तिवारी ने अपने विचार प्रकट किए। उन्होंने कहा कि शिवलिंग या मूर्ति रूप में भगवान के दर्शन की एक झलक पाने के लिए भक्त सदैव उत्सुक रहते हैं, जबकि कुछ लोग मूर्ति पूजा का विरोध भी करते हैं। इस संदर्भ में उन्होंने स्वामी विवेकानंद से जुड़ा एक ऐतिहासिक प्रसंग प्रस्तुत किया। डॉ. तिवारी ने बताया कि एक धर्मसभा में एक व्यक्ति मूर्ति पूजा का उपहास कर रहा था और कह रहा था कि पत्थर निर्जीव है, उसे पूजना व्यर्थ है। उस समय स्वामी विवेकानंद मौन रहे, लेकिन सभा के अंत में उन्होंने उस व्यक्ति से अगले दिन अपने पिता की तस्वीर लाने को कहा। अगले दिन तस्वीर लाए जाने पर स्वामीजी ने उसे जमीन पर रख दिया और उस व्यक्ति से कहा कि इस पर थूक दीजिए। इस पर वह व्यक्ति भड़क उठा और बोला कि यह मेरे पिता की तस्वीर है, मैं इसका अपमान कैसे कर सकता हूँ। तब स्वामीजी ने समझाया कि जैसे वह तस्वीर उसके लिए पिता का स्वरूप है, वैसे ही हमारे लिए मूर्ति भगवान का स्वरूप है, इसीलिए हम मूर्ति की पूजा करते हैं। डॉ. तिवारी ने कहा कि मूर्ति पूजा द्वैतवाद के सिद्धांत पर आधारित है। निराकार ब्रह्म की उपासना करना सरल नहीं है, इसलिए भक्त साकार रूप सामने रखकर ध्यान केंद्रित करते हैं। प्राचीन काल में ऋषि-मुनि ध्यान और समाधि में निराकार की उपासना करते थे, परंतु आज सामान्य जन के लिए मूर्ति रूप ही साधना का सुलभ मार्ग है। उन्होंने कहा कि जैसे माता-पिता की अनुपस्थिति में हम उनकी छवि को स्मरण कर प्रणाम करते हैं, उसी प्रकार देवताओं की मूर्तियां हमारी भक्ति को साकार करती हैं और भावनाओं को पवित्र बनाए रखती हैं। मूर्ति पूजा न केवल श्रद्धा का प्रतीक है बल्कि भक्त और भगवान के बीच भावनात्मक सेतु भी है।
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