नई दिल्ली। हाल के वर्षों में बच्चों में आत्महत्या के मामलों में चिंताजनक बढ़ोतरी हुई है। मामले से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य में गिरावट के कई संकेत होते हैं, जिन्हें समय रहते पहचाना बेहद जरूरी होता है। अहमदाबाद में 16 वर्षीय छात्रा की स्कूल की चौथी मंजिल से छलांग लगाने की घटना और लखनऊ में 14 साल के छात्र द्वारा आत्महत्या जैसे हालिया मामले गंभीर स्थिति को उजागर करते हैं।
मनोचिकित्सकों का मानना हैं कि तकनीक और इंटरनेट की बढ़ती पकड़ ने बच्चों की मानसिक स्थिति को बुरी तरह प्रभावित किया है। कोरोना काल के बाद मोबाइल और गैजेट्स बच्चों की जिंदगी का हिस्सा बने हैं, इससे उनका सामाजिक जुड़ाव और भावनात्मक बुद्धिमत्ता कमजोर हुई है। आज के बच्चे सीखने और खेलने की बजाय डिजिटल दुनिया में जी रहे हैं, जहां हर जवाब उन्हें एक बटन दबाकर मिल जाता है।
जानकार मानते हैं कि बच्चों पर निगरानी की कमी, अत्यधिक स्क्रीन टाइम और अवास्तविक अपेक्षाओं ने उन्हें संवेदनशील बना दिया है। बच्चे छोटी बातों पर तीव्र प्रतिक्रिया देते हैं और जब उनकी अपेक्षाएं पूरी नहीं होतीं, तब निराशा और तनाव उन्हें आत्मघाती कदम उठाने तक ले जाता है।
एनसीआरबी के आंकड़े बताते हैं कि 2001 में जहां 5,425 बच्चों ने आत्महत्या की, वहीं 2022 तक यह संख्या 13,044 तक पहुंच गई। इसमें से कई बच्चे परीक्षा में असफलता, सामाजिक दबाव, अकेलापन और अभिभावकों से भावनात्मक दूरी के कारण इस रास्ते पर चले गए।
विशेषज्ञ बताते हैं कि बच्चों की दिनचर्या में बदलाव, चुप्पी, गुस्सा, नींद की गड़बड़ी, या आत्मघाती विचार जैसे संकेतों को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। अभिभावकों की जिम्मेदारी है कि वे बच्चों के साथ समय बिताएं, उनके व्यवहार में बदलाव को समझें और रचनात्मक गतिविधियों से उन्हें तकनीक से दूर रखें। बच्चों को बचाने का सबसे पहला कदम है – उन्हें समझना और साथ देना।
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