अशोक कुमार
सत्ता का सुख ही कुछ ऐसा है कि पार्टी के वर्षों से समर्पित नेता भी यदि ऐन चुनाव के वक्त टिकट नहीं मिला तो वे रातों रात अपने दल को छोड़कर उस दल में शामिल हो जाते हैं जिस दल को वे वर्षों से गालियां देते आ रहे हैं,उनकी नीतियों की घनघोर आलोचना करते आ रहे हैं। दुमका के भाजपा नेत्री डॉ लुईस मरांडी का उदाहरण ताजा है। पिछले चौबीस साल से जिनके कंधों पर केसरिया पट्टी लगी रहती थी उनके कंधों पर अब हरी पट्टी लटक रही है। रातों रात वे भगवा से हरियाली हो गयी। टिकट की चाह जो न करा ले। ईसाई होते हुए भी उन्होंने सत्ता के लिए भगवा और हिन्दुत्व को अपनाया था। अब सत्ता के लिए उन्हें भगवा त्यागने में भी देर न लगी। विधायक बनने के लिए उन्होंने दल तो बदल लिया लेकिन चौबीस साल तक जिस भगवा को अपनाते हुए भाजपा में रहकर विधायक व मंत्री बनी क्या उनका दिल भी रातों रात भगवा को त्याग सकेगा। क्या उनके समर्थक सैकड़ों भाजपा कार्यकर्ता भी झामुमो की नीतियों व सिद्धांतो को ग्रहण कर पाएंगे? डॉ लुईस के घर पर लगे भाजपा के झंडे तो रातों रात उतर गए लेकिन चौबीस वर्षों तक उनके दिलो दिमाग कां जो भगवाकरण हुआ है वह भी रातों रात उतर पाया होगा,इसमें संदेह है। सचमुच, सत्ता का खेल और विधायक बनकर सत्ता पाने की भूख जल्द शांत नहीं होती है।